यह किताब एक विश्लेषणात्मक अध्ययन है जो उदारीकरण की शुरुआत के बाद से सामाजिक रूप से उपेक्षित और बहिष्कृत समूहों पर केंद्रित है। यह इस बात की पड़ताल करती है कि कैसे उदार आर्थिक सुधारों ने सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों, जाति, जनजाति और धार्मिक अल्पसंख्यकों, को और भी वंचित कर प्रभावित किया है। सिविल सोसाइटी, धर्म, जाति और अलगाव जैसे मुद्दों पर दार्शनिक और सैद्धांतिक तर्कों के माध्यम से यह किताब आर्थिक सुधारों के अध्ययन को एक नया दृष्टिकोण देती है। हथकरघा बुनकरों, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले कर्मचारियों और शराबबंदी आंदोलन से जुड़े अध्ययन इस पुस्तक को अनुभवजन्य महत्त्व प्रदान करते हैं।
चूंकि सामाजिक अपवर्जन से जुड़ा ज्यादातर विद्वतापूर्ण कार्य ‘वंचन’ और ‘अपवर्जन’ के पश्चिमी मतों पर आधारित है, इसलिए यह किताब सिर्फ भारत पर केंद्रित होने के कारण पाठक को इस विषय की विशिष्ट-संदर्भ आधारित समझ प्रदान करती है।